घर रहकर कैसे करें जीवित्पुत्रिका की पूजा, जानिए काशी के ज्योतिषाचार्यों की राय
वाराणसी। अश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन जीवित्पुत्रिका का व्रत किया जाता है। इस व्रत को सुहागन स्त्रियां अपनी संतान को कष्टों से बचाने और लंबी उम्र की मनोकामना के लिए करती हैं, इस व्रत महिलाएं निर्जला रहती है यानि अन्न और जल कुछ ग्रहण नहीं है।
कुछ जगहों पर इसे जितिया या जिउतिया व्रत के नाम से भी जाना जाता है। यह व्रत खास तौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार ,झारखंड और पड़ोसी देश नेपाल में रखा जाता है।
यह व्रत तीन दिन चलता है इसमें पहले दिन सप्तमी को नहाया-खाया, दूसरे दिन निर्जला व्रत और तीसरे दिन इस व्रत का पारण किया जाता है।
जितिया व्रत करने के कुछ खास विधि है जैसे जितिया व्रत के पहले दिन महिलाएं सुबह सूर्योदय से पहले जागकर स्नान करके पूजा करती हैं और फिर एक बार भोजन ग्रहण करती हैं और उसके बाद पूरा दिन कुछ भी नहीं खातीं।
दूसरे दिन सुबह स्नान के बाद महिलाएं पूजा-पाठ करती हैं और फिर पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। व्रत के तीसरे दिन महिलाएं पारण करती हैं।
सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही महिलाएं अन्न ग्रहण कर सकती हैं। मुख्य रूप से पर्व के तीसरे दिन झोर भात, महुआ की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है।
इस बार कोरोना महामारी के कारण सरोवरों और तालाबों पर पूजा करने की इजाजत नहीं दी गयी है। मगर काशी के ज्योतिषाचार्य पं पवन त्रिपाठी ने घर पर रहकर जीवित्पुत्रिका की पूजा विधि का वर्णन किया है।
उन्होंने बताया कि घर पर ही मिट्टी के सरोवर का निर्माण कर विधि विधान से जीवित्पुत्रिका का पूजन करें और भगवान का ध्यान कर पुण्य फल की प्राप्ति करें।
अष्टमी को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है। जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, अक्षत, पुष्प, फल आदि अर्पित करके फिर पूजा की जाती है।
इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बन जाने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजन समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुननी चाहिए।
पौराणिक कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध हुआ तो अश्वत्थामा नाम का हाथी मारा गया लेकिन चारों तरफ यह खबर फैल गई कि अश्वत्थामा मारा गया।
यह सुनकर अश्वत्थामा के पिता द्रोणाचार्य ने शोक में अस्त्र डाल दिए तब द्रोपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया। इसके कारण अश्वत्थामा के मन में प्रतिशोध की अग्नि जल रही थी।
अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उसने रात्रि के अंधेरे में पांडव समझकर उनके पांच पुत्रों की हत्या कर दी। इसके कारण पांडवों को अत्यधिक क्रोध आ गया, तब भगवान श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा से उसकी मणि छीन ली।
जिसके बाद अश्वत्थामा पांडवों से क्रोधित हो गया और उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को भी जान से मारने के लिए उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। भगवान श्री कृष्ण इस बात से भलिभांति परिचित थे कि ब्रह्मास्त्र को रोक पाना असंभव है। लेकिन उन्हें पांडवों के पुत्र की रक्षा करना अति आवश्यक था।
भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल एकत्रित करके उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को दिया। इसके फलस्वरूप वह उत्तरा के गर्भ में पल रहा बच्चा पुनर्जीवित हो गया। यह बच्चा ही बड़ा होकर राजा परीक्षित बना।
उत्तरा के बच्चे के दोबारा जीवित हो जाने के कारण ही इस व्रत का नाम जीवित्पुत्रिका व्रत पड़ा। तब से ही संतान की लंबी उम्र और स्वास्थ्य की कामना के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत किया जाता है।
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