एससी-एसटी एक्ट को लेकर सरकार का ढुलमुल रवैया खड़े करता है कई सवाल, ये था दूसरा रास्ता
2 अप्रैल का दिन देश में लम्बे समय तक याद किया जायेगा, क्योंकि इस दिन भारत बंद के आवाहन पर बिना किसी बड़ी पार्टी के संरक्षण में लाखो की संख्या में दलित और वंचित भारत की सड़को पर उतरे और अपने हक़ की आवाज़ को बुलंद किया।
वैसे तो हमें आजादी हासिल किये हुए 70 साल बीत चुके हैं पर आज भी समाज का एक वर्ग ऐसा है जिसके लिए आज़ादी कई मायनो में अधूरी हैं। आज भी वह अपने अधिकारों को नहीं जानता और 70 सालो में यह पहला ऐसा मौका था जब किसी अदालती आदेश ने लोगो के भीतर ऐसी भावना जगा दी की वो अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े हुए।
हालांकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पुरे आंदोलन के दौरान जो हिंसा हुई, उसमे कई निरपराधों की जान भी गयी और जन-धन की भी काफी क्षति हुई जिसे किसे भी तरीके से उचित नहीं कहा जा सकता हैं। पर कई जगहों पर इन हिंसक घटनाओ में दक्षिणपंथी संगठनों और उनके समर्थको की भी करतूत देखने को मिली, जो इस दलित आंदोलन को बदनाम करने के साथ इस तरह के उभार को भी खत्म करना चाहते थे।
आपको बता दे कि इस आंदोलन का मुख्य मुद्दा सर्वोच्च न्यायलय द्वारा हालही में दिए गए एक फैसले को लेकर था। जिससे वर्ष 1989 में बने अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के कमजोर होने की बात कही जा रही थी। इसी मामले को लेकर न्यायमूर्ति आदर्श गोयल और यूयू ललित की खंडपीठ ने अपने इस फैसले में एक तरह से उपरोक्त अधिनियम के अमल को लेकर कुछ नै नए दिशानिर्देश दिए है। जिनकी पूरी तरह से जानकारी न होने के वजह से कई लोगो में शंका पैदा हो गयी, कई लोगो ने तो इसे आरक्षण को खत्म करने से भी जोड़ दिया।
एससी-एसटी एक्ट को लेकर जो बदलाव किये गए हैं वह कुछ इस प्रकार से हैं
1. जो अभियुक्त हैं उनकी तत्काल गिरफ्तारी पर अब रोक लगेगी और पीड़ित द्वारा शिकायत दायर किए जाने के एक सप्ताह के अंदर पुलिस प्रारंभिक जांच करके ही प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर करेगी, इसके बाद ही कोई करवाई होगी।
2. आरोपित सरकारी मुलाजिमों को तभी गिरफ्तार किया जा सकेगा जबकि उच्चपदस्थ अधिकारियों से लिखित अनुमति मिल सकेगी।
3. जहां इस कानून की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत के प्रावधान को नहीं रखा गया है, वहीं इस फैसले ने इसे मंजूरी दी है।
अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या सरकार दो नावों पर पैर रख कर चलना चाहती है? एक तरफ वह दलितों को खुश करने की बात करती है, मगर दूसरी तरफ सरकार के रवैये को देखकर तो यही लगता है कि वह सामंतवादी शक्तियों के लिए कार्य कर रही हैं और इस केस ने इसके कई प्रमाण भी पेश किये हैं।
सरकार ने बहुत देर से दायर की अपील
आपको बता दे कि, जब सुप्रीम कोर्ट ने अदालत में इस मसले पर अपना पक्ष रखने के लिए सरकार को बुलाया तो उसने अपने सबसे बड़े वकील “अटार्नी जनरल” को भेजने के बजाय उनके जूनियर सालिसिटर जनरल को वहां भेज, जिसने अधिनियम के पक्ष में बहुत कमजोर दलीले दी और सरकार का यह रवैया भी गौर करने वाला हैं कि जब दलित संगठनों ने भारत बंद का आवाहन किया तब सरकार ने मजबूरन उस दिन सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सरकार द्वारा लाया जा सकता था अध्यादेश
सरकार द्वारा मामले को हलके में लेना और फैसले को लेकर देर से अपील करना भी इस मुद्दे को लेकर सरकार के रवैये पे सवाल खड़े करता हैं और यदि सरकार इस पुरे मामले को लेकर इतनी ही गंभीर होती तो वह सर्वोच्च न्यायलय के इस फैसले को पलटने के लिए वह अध्यादेश भी ला सकती थी, जिसे विधायिका द्वारा पारित किया जा सकता था।