काशी की वीरांगना ने छुड़ाए थे अंग्रेजो के छक्के 

काशी की वीरांगना ने छुड़ाए थे अंग्रेजो के छक्के 

वाराणसी। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल बजाने वाली वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियाँ तो सभी ने बचपन से सुनी और पढ़ी हैं।
 
19 नवंबर को वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की 191वीं जयंती हैं। रानी ने मात्र 23 साल की उम्र में ही ब्रिटिश सेना से युद्ध किया और युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुई।

लेकिन उन्होंने अपने जीते जी झांसी राज्य पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं होने दिया। वह अदम्य साहस, शौर्य और देशभक्ति की प्रतिमूर्ति मानी जाती हैं। 

1853 में जब रानी लक्ष्मीबाई के पति की मृत्यु हो गई और अंग्रेजी सरकार ने दामोदर राव को अगला राजा मानने से इंकार कर दिया जिसकी वजह से पूरे राज्य को गोद लेने की तैयारी करने लगे। ब्रिटिश हुकूमत ने गोद लेने से जुड़ा कानून बनाया और मई 1854 में बुंदेलखंड की गोद में बसे छोटे से झांसी राज्य पर कब्जा कर लिया।

उस समय अंग्रेजी हुकूमत का किसी ने खुलकर विरोध नहीं किया। रानी को भी 60 हजार रुपये की सालाना पेंशन और रहने के लिए एक महल दे दिया गया था। मगर उन्हें ब्रिटिश अदालत और पुलिस के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया।

अंग्रेजों की इस नाकाम कोशिश ने एक बागी को जन्म दिया। बागी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की आठ हुसर्स की टुकड़ी के साथ कोटा की सराय और ग्वालियर के बीच जंग लड़ी। जिसमे रानी अंग्रेजी फौज द्वारा घायल हो गईं उनके जख्म घातक साबित हुए और जंग में वीरता से लड़ते हुए एक वीरांगना को वीरगति प्राप्त हुई।

ये जंग रानी लक्ष्मी बाई की पहली और आखिरी जंग थी लेकिन रानी का साहस और वीरता पीढ़ियों तक भारतीयों के दिलो-दिमाग में असर कर गयी। उनकी वीरता से जुड़ी अनगिनत कहानियां सुनाई जाने लगी।

दरअसल, अंग्रेज 1853 से ही झांसी पर आंख गड़ाए बैठे थे। झांसी पर कब्जा करने का जरिया बना “गोद लेने का कानून”, जिसका रानी लक्ष्मी बाई विरोध कर रही थी।
इतिहासकारों द्वारा रानी को युद्ध वीरांगना बताया गया पर साथ ही कहीं न कहीं एक असंतुष्ट बागी के तौर पे उनकी पहचान इतिहास में झलकती हैं।

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Adhyan Chaurasiya